Tuesday, February 16, 2016

Tarkulha Devi

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तरकुलहा देवी मंदिर यह हिन्दू भक्तो के लिए  प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है | यह मंदिर गोरखपुर से 20 किलो मीटर कि दूरी पर बसा हुआ है |ये मंदिर का नाम तरकुलहा देवी कैसे पड़ा इसकी पीछे के छोटी सी कहानी है | कहा जाता था की डुमरी रियासत के बाबू बंधू सिंह यहाँ रहा करते थे। ये गुर्रा नदी के तट पर तरकुल अर्थात ताड़के पेड़ के नीचे पिंडियां स्थापित कर वह देवी की उपासना किया करते थे। ये देवी बाबू बंधू सिंह कि इष्ट देवी थी। तभी से वहाँ लोग इस स्थान को तरकुलहा देवी के नाम से जानने लगे| कहा जाता था की बाबू बंधू सिंह की देवी में बहुत आस्था थी वह पूरे मन और ध्यान से देवी की पूजा अर्चना करते थे | उस  समय देश में अंग्रेज आ चुके थे और बाबू बंधू सिंह भी देश के हित के लिए अंग्रेज़ो से लोहा ले लिया, बाबू बंधू सिंह गुरिल्ला लड़ाई में माहिर थे| कोई अंगेजो को उन्होने उनका सर काटकर देवी मां के चरणों में समर्पित कर देते । जब ये बात अंग्रेज़ो को पता चली तो अंग्रेजों ने उनकी तलाश में जंगल का कोना-कोना छान मारा लेकिन बंधू सिंह अंग्रेज़ो के हाथ न लगे| लेकिन के बार इस इलाके के एक व्यवसायी के मुखबिरी के चलते बंधू सिंह को अंग्रेजों ने पकड़ लिया और उन्हें अदालत में पेश किया जहां उन्हें फांसी की सजा सुनाई गयी कहा जाता है कि अंग्रेजों ने उन्हें 6 बार फांसी पर चढ़ाने की कोशिश की लेकिन वे सफल नहीं हुए। इसके बाद बंधू सिंह ने स्वयं देवी माँ का ध्यान करते हुए मन्नत मांगी कि माँ उन्हें जाने दें।  कहते हैं कि बंधू सिंह की प्रार्थना देवी ने  सुन ली और सातवीं बार में अंग्रेज उन्हें फांसी पर चढ़ाने में सफल हो गए। बंधू सिंह ने अंग्रेजो के सिर चढ़ा के जो बाली कि परम्परा शुरू करी थी वो आज भी यहाँ देखने को मिलता हैं। अब यहाँ पर बकरे कि बलि चढ़ाई जाती है उसके बाद बकरे के मांस को मिट्टी के बरतनों में पका कर प्रसाद के रूप में दिया जाता हैं साथ में बाटी भी दी जाती हैं। यह देश का अकेला ऐसा मंदिर है जहाँ प्रसाद के रूप में मटन दिया जाता हैं।


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