Thursday, October 6, 2016

JAGANNATH TEMPLE PURI जगन्नाथ मन्दिर, पुरी

जगन्नाथ मन्दिर (पुरी) जो चारो धामों में से एक है जो भारत देश के उड़ीसा राज्य में बसा हुआ है | यह मंदिर श्रधालुओं के लिए बहुत ही आस्था का प्रतीक है | यह मंदिर सागर के किनारे (पुरी) में बसा हुआ है इसलिए इसे जगन्नाथ पुरी कहते है | सनातन धर्म के दो सम्प्रदाय है शैव सम्प्रदाय और वैष्णव सम्प्रदाय, शैव सम्प्रदाय जो शिव जी का अनुसरण करते है और वैष्णव सम्प्रदाय जो विष्णु जी का अनुसरण करते है यह मंदिर भगवान विष्णु जी को समर्पित है | "जगन्नाथ" शब्द दो शब्दों से मिल कर बना है, जगत+नाथ = जगन्नाथ अर्थात जगत के स्वामी | जो पूरे जगत के स्वामी है उनको जगन्नाथ कहते है | इस मंदिर का निर्माण कलिंग के राजा अनंतवर्मन चोडगंग देव जी ने आरम्भ कराया था |
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एक बार मालवा के नरेश इंद्रद्युम्न को एक स्वप्न दिखाई दी उस स्वपन में उन्हें एक मूर्ति दिखी | तब उन्होंने भगवान विष्णु की कड़ी तपस्या की तब विष्णु जी ने उन्हें बताया की वो पुरी के समुद्र तट पर जाए वहाँ पर उन्हें एक लड़की का लठ्ठा मिलेगा उसी लड़की के लठ्ठा से मूर्ति का निर्माण शुरू कीजिए | जैसे ही वो लकड़ी ले कर लौटे तब भगवान विष्णु बढ़ई और उनके साथ विश्वकर्मा जी कारीगर का रूप ले कर राजा के पास पहुचें | राजा नें उन्हें मूर्ति बनाने का कार्य सौप दिया पर उन्होने राजा के सामने एक शर्त रखी की मूर्ति को तैयार करने में उन्हें एक मास का समय लगेगा, और जिस कमरे में वो मूर्ति निर्माण का काम करेंगे उस कमरे में कोई भी नही आएगा स्वयं राजा भी नही  वह कमरा पूर्णतया बंद रहेगा | माह समाप्त होने ही वाले थे लेकिन कमरे के अंदर से इतने दिनों में कोई भी खट-पट की आवाज़ नही सुनाई दी तो राजा ये सोच में थे की माह समाप्त होने को है और अभी तक कुछ भी हलचल नही है इस कारण वश राजा ने उस कमरें में जाकर झाक ही लिया, ऐसा करके राजा ने शर्त को तोड़ दिया तभी कारीगर के रूप में विष्णु जी बाहर निकले और राजा से कहें ये मूर्ति अभी अपूर्णा है उनके हाथ अभी बने नही है | राजा को अपनी भूल का एहसास हुआ पर उन्होने कहा की ये सब देववश हुआ है आप कोई अफ़सोस ना करे ये मूर्तियाँ ऐसे ही स्थापित हो कर पूजी जाएँगी | तब वही तीनो मूर्तियाँ ( भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा ) मंदिर में स्थापित कर दी गयी |

हर १२ वर्ष पर मूर्ति बदल दी जाती है | भगवान जगरनाथ की यह मूर्ति लड़की की बनी है, जब १२ वर्ष पूरे होते है तो जगरनाथ जी दर्शन देते है और यह बताते है की जो अब नयी मूर्ति बनाई जाएगी उसका पेड़ कहा होगा , यह केवल नीम की लकड़ी का ही  बनता है | उस नीम के पेड़ में भगवान विष्णु के शंख, चक्र, गदा साफ-साफ दिखाई देता है | पहले लोग उस पेड़ की पूजा करते  है और फिर उसके बाद उस पेड़ की लकड़ी से मूर्ति बनाने का कार्य करते है | यह नबकलेबार के नाम से जाना जाता है | कहते है की जब उस मूर्ति को स्थापित किया जाता है तो उसके भगवान का दिल को उसमे रखते है | कथा है की जब द्वापर युग में भगवान श्री कृष्‍ण ने अपना देह त्याग दिया तो पांडोवन् ने उनका क्रिया-कर्म किया और उस समय उनका शरीर पूरी तरह अग्नि को स्मर्पित तो हो चुका था परन्तु उनका दिल काफ़ी दिनों तक जलता रहा | यह देख पांडवों को काफ़ी आश्चर्या हुआ, फिर आकाशवाणी हुई की उनका दिल समुंदर में प्रवाहित कर दो तभी यह भुज पाएगा, आदेशानुसार पांडवों में उनके दिल को समुंदर में प्रवाहित कर दिया | फिर यही दिल समुंद्र में भुज कर ठंडा हो गया, स्वपन में भगवान ने दर्शन दिया और कहा की इस को मूर्ति में स्थापित कर दो, फिर हर १२ साल पर जब भी नयी मूर्ति बनाई जाती है तो ये उसमे स्थापित कर दिया जाता है | कहा जाता है की जो इसे बदलता है उसके आँख पर पट्टी बाँध दी जाती है की वो उसे नग्न आखों से ना देख सके | मान्यता: यह है की जो भी इसे देख लेगा तो उसके साथ अशुभ घटित होगा, इसलिए जब यह क्रिया अपनाई जाती है तो पूरे उड़ीसा में बिजली काट दी जाती है | जो यह कार्य करता है उसका अनुभव है की उसे अपने खाली हाथों पर नही रखता हाथ पर कपड़े की पट्टी बाँध लेता है | जब वो दिल को छूता है तो ऐसा अनुभव करता है की कोई जिंदा खरगोश उसके हाथ में रखा गया हो | इसलिए कहते है की भगवान जगरनाथ के मूर्ति में उनका दिल बसता है |

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देखा जाए तो कोई भी ध्वज हवा के साथ मिलकर उसके दिशा में उड़ता है परन्तु यहाँ तो इसके विपरीत ही होता है, किसी ने भी  ऐसा सुना नही होगा की हवा के विपरीत दिशा में उड़ता हो परन्तु यहाँ पर ऐसा ही देखने कोई मिलता है मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज सदैव हवा के विपरीत दिशा में उड़ता है, इसलिय इस ध्वज को व्यक्ति द्वारा उल्टा चढ़कर ही उसे बदला जाता है, इस ध्वज को प्रायः संध्याकाल के समय ही बदला जाता है | यहाँ आकर खुद अनुभव कीजिए इस बात का ज़रूर यकीन होगा | मंदिर के शिखर पर एक चक्र लगा हुआ है जिसका नाम सुदर्शन चक्र है, मंदिर का यह चक्र भी बहुत ही अद्भुत है आप इस चक्र को किसी भी दिशा से भी देखे तो लगेगा की ये चक्र आप के सामने ही है न यह अद्भुत बात की आप मंदिर को किसी भी दिशा से देखे तो लगागे की यह सुदर्शन चक्र आपके सामने ही है | अपने बहुत मंदिर दर्शन किए होंगे, हर मंदिर के उपर पंछीयों उड़ते हुए देखा ज़रूर होगा, परंतु यहाँ के मंदिर पर किसी भी पंछी को उपर से उड़ते हुए नही देखने को मिलेगा, लोग कहते है की यहाँ की ऐसी विशेषता है की कोई भी मंदिर से उपर से उड़ नही सकता है इसलिए आजतक इस मंदिर के उपर से किसी भी हवाई जहाज़ या कोई भी चिड़िया उड़ते हुए नही पायी गयी है | दिन के वक्त सूरज की रोशिनी में हर किसी की छाया बनती है और दिखाई भी देती है | परंतु जगरनाथ पूरी की ये मंदिर की छाया कभी दिखाई ही नही देती है न ये अचरज करने वाली बात इन्ही सब बातों से यह मंदिर वास्तुकला का अद्भुत परिचय देते है | जगरनाथपुरी के मंदिर का रसोईघर विश्व का सबसे बड़ा रसोईघर माना जाता है | यहाँ पर पूरे वर्ष के लिए रसोई का अन्न एक साथ रखने की व्यवस्था है | यहाँ पर जो प्रसाद मंदिर के अंदर बनाए जाते है वो भी बहुत ही अद्भुत है आप जानेगे तो तजुब होगा , एक साथ ७ मिट्टी के बर्तन एक के उपर एक रखे जाते है और नीचे लड़की का आच पर पकाया जाता है, अद्भुत बात यह है की जो बर्तन सबसे उपर होता है वो सबसे पहले पकता है और जो सबसे नीचे होता है वो सबसे बाद में पकता है | सारा खाना लकड़ी पर ही बनाया जाता है | मंदिर का रसोई घर इतना बड़ा है तो जाहिर सी बात है की रसोई घर में काम करने वाले लोग भी अधिक ही होंगे, इस पूरे रसोईघर में ५०० रसोइए और उनके साथ ३०० सहायक होते है जो पूरे प्रसाद को बनाते है |मंदिर का रसोई इतना बड़ा है की लाखों लोगो को प्रसाद खिलाया जाता है और प्रसाद की थोड़ी भी मात्रा बेकार नही जाती न ही कम पड़ता है और ही ना व्यर्थ जाता है |
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समुंद्रिया लहरो की बात की जाए तो यहाँ पर वो भी विपरीत ही कार्य करती है | जैसे देखा जाए तो दिन के समय हवा सागर से ज़मीन के तरफ आती है और संध्या के समय तो ज़मीन से सागर की ओर जाती है परंतु जगरनाथपुरी में इसके विपरीत ही होता है | अद्भुत बात यह है की यह मंदिर समुंदर के किनारे बसा हुआ है परंतु जैसे ही आप मंदिर के प्रवेश द्वार जिसका नाम सिंह द्वार रखा गया है जैसे ही आप उससे मंदिर के अंदर जाएँगे तो आपको सागर की शोर बिल्कुल सुनाई नही देगी और जैसे है आप उस द्वार के बाहर आएगे तो आपको यह सुनाई देगा, शाम के समय यह स्पष्ट रूप से महसूस कर सकते है |
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Wednesday, June 8, 2016

Nartiang Durga Temple MEGHALAYA

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पौराणिक कथाओं के अनुसार जब एक बार दक्ष प्रजापति ने कनखल जो आज हरिद्वार के समीप है वहाँ पर 'बृहस्पति सर्व' नामक यज्ञ करवा रहे थे | वहाँ पर उस यज्ञ में सभी देवी-देवताओं सहित ब्रह्मा, विष्णु और इंद्र आमंत्रित किया गया परन्तु शिवजी को आमंत्रित नही किया | तब दक्ष की पुत्री सती ने शिवजी को ना बुलाने का कारण पूछा तो दक्ष ने शिवजी का अपमान किया, शिवजी का ये अपमान सती सह पायी और वहाँ बने हवन-कुंड में कूद कर अपने प्राणो की आहुति दे दी |
                       शिवजी उस यज्ञकुंड से देवी सती के पार्थिव शरीर को निकाला और कंधे पर उठाकर इधर-उधर घूमने लगे, देवी सती के शव के विभिन्न अंग और आभूषण विभिन्न-विभिन्न स्थानों पर गिरे और ये जहाँ-जहाँ गिरे वही-वही शक्तिपीठों  का निर्माण हुआ |
                           उन बावन शक्तिपीठों में से एक नारतियांग का भी स्थान माना जाता है, ऐसा ही एक स्थान है जहाँ माता सती का बाया जांघ (लेफ्ट थाइगिरा वो स्थान मेघालय के जयंतिया हिल में नारतियांग गाँव में स्थित है | यहाँ पर यह स्थान नारतियांग दुर्गा मंदिर के नाम से प्रचलित है
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उत्तर-पूर्व भारत का यह मंदिर लगभग ५०० साल पुराना है कहा जाता है की देवी का बाया जांघ जयंतिया हिल में गिरने ये इनका नाम जाइंटेश्वरी देवी भी पड़ा |  नारतियांग लगभग शिलॉंग से ६५ किलोमीटर दूर पर बसा हुआ है | यहाँ पर यह मंदिर बहुत ही खूबसूरत एक घर जैसे बना हुआ है, जो की यहाँ के मौसम और वातावरण के अनुरूप बना है | यह मंदिर यहाँ के राजा धन माणिक के द्वारा बनवाया गया | एक बार देवी उनके स्वपन में उन्हें दर्शन दिया और उनसे कहा की इस स्थान पर एक मंदिर का निर्माण करा दो तब राजा धन माणिक नें उस स्थान पर माता का मंदिर का निर्माण कराया तब से यह स्थान जाइंटेश्वरी पड़ा | यह मंदिर मिंतदु नदी के किनारे बसा हुआ है | इस मंदिर में पूजा-अर्चना सभी जयंतिया रीति-रिवाजों के अनुसार ही होता है | 
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यहाँ पर बलि प्रथा प्रचलित है और यहाँ पर मानव बलि भी दी जाती थी परन्तु ब्रिटिश काल में बंद करा दिया गया परंतु अब भी बलि होती है उसें बकरी, बतक और मुर्गे की दी जाती है | बकरे की बलि को पूरी तरह से सज़ा के ( उसे धोती पहना के और उसके सर में मानव का मुखवटा लगा कर दिया जाता है ) जहाँ पर बलि दी जाती है वही पर एक सुरंग बनी है वो सुरंग मिंतदु नदी से जुड़ा हुआ है और बकरे का सिर उसी सुरंग से सीधे नदी में जा मिलती है | दुर्गा पूजा के समय केले के पेड़ ( देवी दुर्गा ) मान कर उसे बेहद खूबसूरती के साथ सजाया जाता है और उनकी पूजा-अर्चना की जाती है | पूजा पूर्ण होने के उपरांत केले के पेड़ को मिंतदु नदी में विधिवत समर्पण कर दिया जाता है | उत्तर-पूर्व भारत में जाइंटेश्वरी के साथ-साथ और भी दो स्थान है, जहाँ देवी के प्रमुख स्थान है एक तो गुवाहाटी में जहाँ माता को कामाख्या के नाम से उनके भक्त पुकारते है और दूसरा त्रिपुरा में जहाँ पर त्रिपुरा सुंदरी के नाम से पुकारते है |

स्थान
राज्य / देश
शरीर का अंग / आभूषण
शक्ति
भैरव
नारतियांग गाँव / जैंटिया हिल्स डिस्ट्रिक्ट
मेघालय
बायाँ जाँघ
जयंती
क्रमदिश्वर


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Wednesday, March 16, 2016

Angkor Wat


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शताब्दी  में राजा जयवर्मा तृतीय जो कंबुज के राजा हुआ करते थे उन्होने लगभग ८६० ईसवी में अंग्कोरथोम राजधानी की नींव डाली, यह राजधानी ४० वर्षों तक बनती रही और लगभग ९०० . में बन कर तैयार हुई| अंग्कोरथोम दो शब्दो से मिल कर बना है, अंगकोर+थोम, अंगकोर का अर्थ है शहर और यहाँ थोम का अर्थ राजधानी है | ऐसा कहा जाता था की अंग्कोरथोम राज्य का संस्थापक कौंडिन्य ब्राह्मण था जिसका नाम वहाँ के एक संस्कृत अभिलेख में देखने को मिला है | यह कंबोडिया के अंकोर में स्थित है जिसे पहले यशोधरपुर के नाम से जाना जाता था | अंकोरवाट दो  शब्दों से मिल कर बन है अंकोर+वाट जहां अंकोर का अर्थ है सिटी यानि शहर और वाट का अर्थ है टेम्पल यानि मंदिर अर्थात मंदिरों का शहर | अंकोरवाट का मंदिर विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक स्मारकों में से एक है यह मंदिर विश्व का सबसे बड़ा हिन्दू मन्दिर परिसर के लिए माना जाता है | यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित १२ शताब्दी में राजा सूर्यवर्मन द्वितीय द्वारा बनवाया गया, परन्तु वे इस निर्माण के कार्य को पूर्ण नहीं कर पाए फिर इस  मंदिर को उनके उत्तराधिकारी धरणीन्द्रवर्मन जो रिश्ते में भानजे लगते थे उन्होने इस कार्य को सम्पूर्ण किया | यह मंदिर चोल वंश के मन्दिरों से मिलता-जुलता कहा जाता है | 
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यह मंदिर मीकांग नदी के किनारे सिमरिप शहर में बना है, यह संसार का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर है, जो सैकड़ों वर्ग मील में फैला हुआ है और इस मंदिर चारो तरफ पानी भरा हुआ है जो इसको और भी सुंदर दिखाने में सहयता देता है |  मंदिर में ८ शिखर है जिनकी उँचाई ५४ मीटर है और इसका मूल शिखर जो इससे उँचा है वो ६४ मीटर है | मंदिर को ३.५ किलोमीटर तक लंबी पत्थर की दीवार से घेरा गया है उसके बाहर ३० मीटर खुली भूमि है और फिर बाहर १९० मीटर 
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चौडी खाई है | मंदिर में ८ शिखर है जिनकी उँचाई ५४ मीटर है और इसका मूल शिखर जो इससे उँचा है वो ६४ मीटर है | मंदिर को ३.५ किलोमीटर तक लंबी पत्थर की दीवार से घेरा गया है उसके बाहर ३० मीटर खुली भूमि है और फिर बाहर १९० मीटर चौडी खाई है जो देखने में काफ़ी अद्भुत लगता है | यहाँ मंदिर में पर्यटक केवल वास्तुशास्त्र का अनुपम सौंदर्य देखने ही नहीं आते बल्कि यहाँ का सूर्योदय और सूर्यास्त देखने भी आते हैं, यहाँ का सूर्योदय और सूर्यास्त का एक अलग ही अनुभूति होती है जो पर्यटको का मन मोह लेती है | 

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यहाँ मंदिर के गलियारों में महाभारत एवं रामायण से संबंधित अनेक शिलाचित्र देखने को मिलते है | रामायण के अनेक महत्वपूर्ण पहलू को प्रदर्शित किया गया है, जिसमें रामायण के बालकांड और उसके बाद विराध एवं कबंध वध का चित्रण है, भगवान राम द्वारा धनुष-बाण लेकर स्वर्ण मृग के पीछे दौड़ते हुए दिखाया गया है, तो और कही राम की सुग्रीव से हुई मैत्री का चित्रण किया गया है और फिर सुग्रीव और बाली के द्वंद्व युद्ध का चित्रण दिखाया गया है | तो कही अशोक वाटिका में हनुमान जी और सीता जी का वार्तालाप, तो फिर लंका में राम-रावण युद्ध, और सीता ज़ी की अग्नि परीक्षा और राम की अयोध्या वापसी के दृश्य देखने को मिलते है | अंकोरवाट मंदिर में पूरे रामायण के सभी पहलुओ को चित्रित कर के दिखाया गया | पथरों को बेहद खूबसूरती से तराशा गया है , पथरों में जोड़ होने का बावजूद भी कलाकारी बेहद साफ है | 
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इस मंदिर का आकर बहुत विशाल होने के कारण इसे मंदिरों के पहाड़ के नाम से भी जाना जाता है |मिस्र के पिरामिड की तरह यहाँ भी पथरों में बड़ी-बड़ी मूर्तिया देखने को मिलती है | इस मंदिर की वास्तुकला ख्मेर व चोल शैली पर आधारित है इसके अतिरिक्त वास्तुशास्त्र का भी अनुपम सौंदर्य देखने को मिलता है | सन् १९९२ में इस मंदिर को यूनेस्को के विश्व धरोहर में सम्मलित कर लिया गया | 

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अंकोरवाट के हिंदू मंदिरों पर बाद में बौद्ध धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा और समय के साथ-साथ उसमे बौद्ध भिक्षुओं ने वहाँ पर अपना निवास स्थान बनाया और यह अब हिंदू-बौद्ध-केंद्र के रूप में अपना पहचान बना लिया है, इसलिए यहाँ पर विभिन्न भागों से हजारों पर्यटक उस प्राचीन मंदिर के दर्शनों के लिए प्रति वर्ष आते है |
वर्तमान समय में अंकोरवाट का मंदिर विश्व के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में से एक माना जाता है क्योकि यहाँ पर ५०% से अधिक विदेशी पर्यटक यहाँ आते रहते है | यह मंदिर कंबोडिया का प्रतिठा इसलिए इसे कंबोडिया के राष्ट्रध्वज में भी इसे स्थान दिया गया है
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JAGANNATH TEMPLE PURI जगन्नाथ मन्दिर, पुरी

जगन्नाथ मन्दिर (पुरी) जो चारो धामों में से एक है जो भारत देश के उड़ीसा राज्य में बसा हुआ है | यह मंदिर श्रधालुओं के लिए बहुत ही आस्था का ...